दैनिक सांध्य बन्धु जबलपुर। मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की जबलपुर पीठ ने दमोह नगर पालिका की विवादास्पद नीति ‘योगदान नहीं, तो पेंशन नहीं’ को असंवैधानिक करार देते हुए एक अहम फैसला सुनाया। हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि 45 साल सेवा लेने के बाद किसी कर्मचारी को पेंशन से वंचित करना अन्यायपूर्ण और अवैध है।
हाई कोर्ट के जस्टिस विवेक जैन की एकलपीठ ने यह आदेश दमोह नगर पालिका के दिवंगत सफाई कर्मचारी पुरुषोत्तम मेहता की विधवा सोमवती बाई वाल्मीकि की याचिका पर सुनाया। कोर्ट ने कहा कि नगर पालिका को एक माह के भीतर छह प्रतिशत ब्याज सहित पेंशन और 12 प्रतिशत ब्याज सहित ग्रेच्युटी का भुगतान करना होगा।
नगर पालिका दमोह ने तर्क दिया कि पुरुषोत्तम मेहता ने अपने वेतन से पेंशन फंड में कोई योगदान नहीं दिया था, इसलिए उन्हें पेंशन का हकदार नहीं माना जा सकता। हाई कोर्ट ने इस तर्क को पूरी तरह असंवैधानिक और अनुचित बताते हुए कहा कि यदि योगदान अनिवार्य था, तो वेतन से कटौती करना नियोक्ता की जिम्मेदारी थी।
कोर्ट ने कहा कि 1980 के नगर पालिका पेंशन नियमों में कर्मचारी के व्यक्तिगत योगदान की कोई अनिवार्यता नहीं है, और पेंशन एक अधिकार है, जिसे नकारा नहीं जा सकता।
याचिकाकर्ता के वकीलों संजय कुमार शर्मा, असीम त्रिवेदी और रोहिणी प्रसाद शर्मा ने कोर्ट को बताया कि पुरुषोत्तम मेहता ने 1964 से 2009 तक सफाई कर्मचारी के रूप में सेवा दी, लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन और ग्रेच्युटी न मिलने से उनका परिवार आर्थिक संकट में आ गया।
कोर्ट ने नगर पालिका की संवेदनहीनता पर नाराजगी जताई और कहा कि सेवा समाप्ति के बाद पेंशन से इनकार करना कर्मचारी के अधिकारों का हनन है।
नगर पालिका ने अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए तर्क दिया कि पेंशन भुगतान की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। हाई कोर्ट ने इस दलील को भी खारिज कर दिया और स्पष्ट किया कि जब नगर पालिका ने पेंशन स्वीकृत ही नहीं की, तो राज्य सरकार को दोष देना कानूनी रूप से गलत है।
इस फैसले से स्पष्ट संदेश गया है कि सेवानिवृत्त कर्मचारियों को पेंशन से वंचित नहीं किया जा सकता, और नियोक्ता की जिम्मेदारी है कि वह समय पर पेंशन का भुगतान सुनिश्चित करे। यह निर्णय अन्य ऐसे मामलों में भी नजीर बन सकता है, जहां कर्मचारियों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है।