'मरे तो मरे, कमाई तो धांसू की !' सिवनी में 'मौत' भी कमाई का जरिया बन गई

यारा... सिवनी में अफसरों ने ऐसा सरकारी तंत्र-तंत्रा रच दिया कि अब लगता है.. मौत भी अब कमाई का मजबूत ज़रिया बन चुकी है। हुआ यूं कि 47 लोगों को 280 बार मरा घोषित कर दिया गया अब जरा सोचिए - 47 लोग, जिन्हें कभी बाढ़ में मरा दिखाया गया, कभी सर्प दंश से कभी आंधी से, कभी बीमारी से, अन्य प्राकृतिक तरह से ... और हर बार सरकारी खजाने से चार-चार लाख की 'श्रद्धांजलि राशि' निकाली गई। कुल जोड़ें तो 11 करोड़ 26 लाख का खेल। और ये सब हुआ एकदम दस्तावेजी तरीके से जैसे कोई ईमानदार योजना चल रही हो। 

सरकारी रजिस्टरों में, पूरी कायदे-कानून के साथ। और हर बार सरकार ने 4 लाख रुपए की राहत राशि 'शोक' स्वरूप जारी कर दी। कुल कुल मिलाकर 11 करोड़ 26 लाख का शोक-विवेक घोटाला। अब इसे घोटाला कहें या 'मृत प्रबंधन  योजना', पर इतना तय है कि मरने वाले भी अब सोचेंगे कि मरने के बाद कहां रजिस्ट्रेशन कराएं ताकि 'ज्यादा बार मरे' और फायदा बढ़े। 21 लोग गिरफ्तार हो चुके हैं, मास्टरमाइंड भी सलाखों के पीछे हैं, संदिग्ध एसडीएम और पांच तहसीलदार हैं जो फिर कागजों में लाशें ढूंढने में लगे होंगे। 

मगर असली पेंच यहां फंस रहा है जांच अब इस बात की भी हो रही है कि क्या ये खेल सिर्फ सिवनी तक ही सीमित है या पूरे मध्यप्रदेश में ही कहीं न कहीं 'मौत योजना' के तहत जिंदगीभर की कमाई की जा रही है? क्योंकि अगर सिवनी में 280 बार लोग मरे, तो क्या बाकी जिलों में सिर्फ 'ईमानदारी की गारंटी' पर भरोसा कर लें...? ये मामला केवल सिवनी का नहीं, बल्कि सवाल मध्यप्रदेश के हर उस जिले पर है जहाँ कागज़ पर लाशें जिंदा हैं और राहत राशियाँ हवा में उड़ रही हैं। कभी-कभी तो लगता है कि योजना बनती है जनता के लिए, चलती है फाइलों में और फलती है सिर्फ चतुर अफसरों के जेब भरने के लिए। यारा तो आज का संदर्भ सीधा है 'जहां मौत भी सरकारी योजनाओं से जुड़कर इतनी प्रोडक्टिव हो चुकी है, वहीं जिंदा आदमी... वो सरकारी योजना का फॉर्म भरते-भरते थक चुका है!

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